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Ramdhari Singh Dinkar Biography in hindi

Ramdhari Singh Biography in hindi- रामधारी सिंह दिनकर जीवनी

Ramdhari Singh Dinkar Biography in hindi

राष्ट्रकवि Ramdhari Singh Dinkar जी का जन्म 23 सितम्बर 1908 ईस्वी को बिहार राज्य के बेगूसराय जिले के सिमरिया गांव में हुआ था कवि दिनकर जी के माता का नाम मनरूप देवी और पिता जी का नाम रवि सिंह था जो की एक किसान थे। जब दिनकर जी का उम्र महज 2 वर्ष ही था की इनकी इनके पिता जी का देहांत हो गया। उनके देहांत होने के वाद दिनकर जी के घर में दुःख का पहाड़ टूट गया। वे अपने बड़े भाई बसंत सिंह के छत्र छाया में पले बढ़े। उनका बचपन गांव में ही बीता।

रामधारी सिंह दिनकर शिक्षा –

Ramdhari Singh Dinkar जी का प्रारंभिक शिक्षा उनके गांव के स्कूल से ही हुआ। 1928 में वो मैट्रिक की परीक्षा पास किये और आगे की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से इतिहास से बी,ए की डिग्री हांसिल की। BA की परीक्षा उत्तीर्ण करने के वाद उन्होंने अपने आगे की पढ़ाई रोक दी और एक विद्यालय में प्रधानाध्यापक के पद पर नियुक हो गए। कुछ दिन अध्यापक के पद पर कार्य करने के वाद बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी बिभाग के अध्यक्ष भी रहे। उसके बाद इन्हे राज्यसभा के सदस्य भी चुना गया . दिनकर जी 12 वर्ष तक सांसद के पद पर नियुक्त रहे नियुक्त रहे।

1964 से लेकर 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय में कुलपति के पद पर नियुक्त रहे। 1965 से 1971 तक हिंदी सलाहकार के रूप में कार्य को संभाले रखा।

सम्मान –

1972 में उर्वसी के लिए दिनकर जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला। उसके बाद राष्ट्रपति के द्वारा इन्हे पदम्भूषण सम्मानसेभी सम्मानित किया गया और संस्कृति के चार अध्याय के लिए दिनकर जी को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला।

Ramdhari Singh Dinkar जी को राष्ट्रकवि के सम्मान से भी सम्मानित किया गया।

Ramdhari Singh Dinkar प्रमुख रचनाये –

दिनकर जी ने काव्य – बारदौली विजय संदेश (1928) ,प्राण भंग (1929) में ,रेणुका (1935) में हुंकार (1938) रसवंती (1939) द्वंदगीत (1940) ,कुरुछेत्र (1946) ,धुप और छाव (1947) ,सामधेनी (1947) बापू (1947) इतिहास के आँशु (1951) मिर्ची का मजा (1951) रश्मिरथी (1952) दिल्ली (1954) नीम के पत्ते (1954) नील कुसुम (1955) सूरज का व्याह (1955) चक्रवात (1956) कवि श्री (1957) सिपी और संख (1957) नए सुभासित (1957) लोकप्रिय कवि दिनकर (1960) उर्वसी (1961) परशुराम प्रतीक्षा (1963) आत्मा की आँखे (1964) कोयला और कवित्व (1965) हारे की हरिनाम (1970) दिनकर की गीत (1973) रश्मि लोक (1974 ).

गद्द्य रचना –

मिट्टी की ओर (1946) चितौड़ का साका (1948) अर्धनारीश्वर (1952) रेत के फूल (1954) राष्ट्र भाषा और राष्ट्रीयएकता (1955) हमारी संस्कृति एकता (1955) हमारी संस्कृति एकता (1955) भारत की संस्कृति कहानी (1955) संस्कृति के चार अध्याय (1956) उजली आग (1956) देश विदेश (1957) काव्य की भूमिका (1958) वेणु वन (1958) वट पीपल (1961) लोक देव नेहरू (1965) सुद्ध कविता की खोज (1966) राष्ट्र भाषा आंदोलन और गांधीजी (1968) हे राम (1968) धर्म नैतिकता और विज्ञानं (1969) अस्मरण और श्रृंद्धांजलियां (1970) मेरी यात्राएं (1971) विवाह की मुसीवते (1973) दिनकर की डायरी (1973) ,

भाषा शैली –

दिनकर जी की भाषा शुद्ध परिमार्जित खड़ी बोली है संस्कृत निष्ठ है इनकी भाषाओ में मुहाबरों और कहाबतो प्रयोग मिलता है तथा शैली इनकी शैली ओज और प्रसाद पूर्ण है इन्होने विवेचनात्मक और सकती सैली का उद्धवधरन और सकती शैली का प्रयोग किया है।

व्यक्तिव विशेषता –

दिनकर जी आधुनिक युग के सर्वश्रेठ वीर रस के कवी के रूप में अस्थापित हुए। इन्हे क्रन्तिकारी कवि भी कहा जाता है।

ये स्वतन्त्रा से पहले बिद्रोही कवि के रूप मे जाने जाते थे और जब देश स्वतंत्र हो गया उसके बाद राष्ट्रकवि के रूप में प्रतिष्ठा मिला।

Ramdhari Singh Dinkar की मृत्यु –

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी का निधन 24 अप्रैल 1974 ईस्वी को मद्रास के चेन्नई में हो गया।

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का कुछ बेहतरीन कविता –

आग की भीख। …..

धुंधली हुयी दिशाएं छाने लगा कुहासा
कुचली हुयी सीखा से आने लगा धुआँसा।
कोई मुझे बता दे क्या आज हो रहा है
मुँह को छिपा तिमिर में क्यों तेज सो रहा हो ?
दाता पुकार मेरी संदीप्ति को जीला दे।
प्यारे स्वदेश के हित अंगार मांगता हु।
चढ़ती जवानियों का सिंगार मांगता हु।

बेचैन है हवाएं सब ओर बेकली है
कोई नहीं बताता किस्ती किधर चली है?
मँझदार है भवर है या पास है किनारा ?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का सितारा
आकाश पर अनल से लिख दे अदृश्ट मेरी
भगवान इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तंबेधनि किरण का संधान मांगता हु।
ध्रुव की कठिन घड़ी में पहचान मांगता हु।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हुयी है
बलपुंज केसरी की ग्रीवा झुकी हुयी है।
अग्निस्फुलिंग रज का बुझ देर हो रहा है
है रो रही जवानी अँधेरा हो रहा है
निर्वाक है हिमालय गंगा डरी हुई है।
निस्तबधता निशा की दिन में भरी हुयी है।
पंचास्यनाद भीषण बिकराल मांगता हु।
जड़ताविनाश को फिर भूचाल मांगता हु।

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है
अरमान आरजू की लाशे निकल रही है।
भींगी ख़ुशी पलो मे रातें गुजारते हैं
सोती बसुंधरा जब तुझको पुकारतें हैं
इनके लिए कही से निर्भिक तेज लादे ,
पिघले हुए अनल का इनको अमृत पिला दे।
उन्माद बेकली का उत्थान मांगता हु।

आँशु भरे दृगों में चिनगारियाँ सजा दे
मेरे समशान में श्रृंगी जरा बजा दे।
फिर एक तीर सिनो के आरपार करदे।
हिमशीत प्राण में फिर अंगार स्वक्ष भर दे।
आमर्ष को जगाने वाली सिखा नई दे
अनुभूतियाँ ह्रदय में दाता अनल मयी दे ,
विष का सदा लहू में संचार मांगता हु।
बेचैन जिंदगी का मैं प्यार मांगता हु।

ठहरी हुयी कली को ठोकर लगा चलादे
जो राह हो हमारी उसपर दिया चलादे।
गति में प्रभंजनो का आवेग फिर सवल दे
इस जाँच की घडी में निष्ठा कड़ी अचल दे।
हम दे चुके लहू हैं तू देवता विभा दे
अपने अनलबिशिख से आकाश जगमगा दे
प्यारे स्वदेश के हित बरदान मांगता हु।
तेरी दया विपद में भगवान् मांगता हु।

कृष्ण की चेतावनी। …….

वर्षो तक वन में घूम -घूम
बाधा – बिध्नो को चुम -चुम
सह धूम धाम पानी-पत्थर
पांडव आये कुछ और निखर
सौभाग्य न सबदिन सोता है
देखो क्या आगे होता है।

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मैत्री की राह बताने को
सबको सुमार्ग पर लाने को ,
द्रुर्योधन को समझाने को ,
भीषण बिध्वंश बचाने को ,
भगवान् हस्तिनापुर आये ,
पांडव का संदेशा लाये।

,दो न्याय अगर तो आधा दो
पर इसमें भी अगर बाधा हो ,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम ,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वही ख़ुशी से खाएंगे ,
परिजन पर असि न उठाएंगे।

द्रुर्योधन वह भी दे न सका
आशीष समाज की ले न सका ,
उलटे हरी को बांधने चला ,
जो साध्य नहीं उसे साधने चला ,
जब नाश मनुज पर छाता है ,
पहले विवेक मर जाता है

हरी ने भीषण हुंकार किया ,
अपना स्वरुप बिस्तार किया ,
डगमग डगमग दिगज डोले ,
भगवन,कुपित होकर बोले ,
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे
हाँ हाँ दुर्योधन बांध मुझे।

यह देख गगन मुझमे लय है
यह देख ,पवन मुझमे लय है ,
मुझमे बिलिन झंकार सकल ,
अमरत्व फूलता है मुझमे।
संहार झूलता है मुझमे।

उदयाचल मेरा दीप्त भाल ,
भूमंडल बृक्ष स्थल विशाल ,
भुज परिधि -बंध को घेरे है ,
मैनाक -मेरु पग मेरे है।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर ,
सब है मेरे मुख के अंदर।

दृग हो तो दृश्य अकाण्ड देख ,
मुझमे सारा ब्रह्माण्ड देख ,
चर-अचर ,जीव जग छर-अक्षर ,
निश्वर मनुष्य सुरजाति अमर,
शत कोटि सूर्य सतकोटि चंद्र ,
शत कोटि सरित सर सिंघु मंद्र।

शत कोटि विष्णु ब्रह्मा महेश ,
शत कोटि जिष्णु जलपति घनेश।
शत कोटि रूद्र शत कोटि काल ,
शत कोटि दंडधर , लोकपाल ,
ज़ंजीर बढ़ाकर साध इन्हे ,
हाँ हाँ दुर्योधन बांध इन्हे।

भूलोक अतल पताल देख ,
गत और अनागत काल देख ,
यह देख जगत आदि सृजन ,
यह देख महाभारत का राण ,
मृतकों से पटी हुयी भू है ,
पहचान कहाँ इसमें तू है।

अम्बर में कुन्तल जाल देख ,
पद के निचे पाताल देख ,
मुठी में तीनो काल देख ,
मेरा स्वरुप बिकराल देख।
सब जन्म मुझी से पातें हैं ,
फिर लौट मुझी में आतें हैं।

जिहा से के कढ़ति ज्वाल सघन ,
सांसो में पाता जन्म पवन ,
पर जाती मेरी दृश्टि जिधर ,
हसने लगती सृष्टि उधर
मैं जभी मूँदता हु लोचन ,
छा जाता चारो ओर मरण।

बाँधने मुझे तो आया है,
ज़ंज़ीर बड़ा क्या लाया है ,
यदि मुझे बांधना चाहे मन ,
पहले तो बांध अनंत गगन ,
सुने को साध न सकता है।
वह मुझे बांध कब सकता है?

हित बचन नहीं तूने मना,
मैत्री का मूल्य ना पहचाना ,
तो ले मैं भी अब जाता हु ,
अंतिम संकल्प सुनाता हु।
याचना नहीं अब रण होगा
जीवन जय या की मरण होगा।

टकराएंगे नक्षत्र निकर ,
वर्षेगे भू पर वह्रि प्रखर,
फ़न शेष नाग का डोलेगा।
विकराल काल मुँह खोलेगा ,
दुर्योधन रण ऐसा होगा ,
फिर कभी नहीं जैसा होगा।

भाई पर भाई टूटेंगे ,
विष -वान बूंद-से छूटेंगे,
वायस श्रृंगाल सुख लूटेंगे
सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आख्रिर तू भुयासी होगा ,
हिंसा का पर दायी होगा।

थी सभा सन्य सब लोग डरे ,
चुप थे या बेहोस पड़े।
केवल दो नर न अघाते थे
धृतराष्ट्र विदुर सुख पाते थे।
कर जोर खड़े प्रमुदित
निर्भय दोनों पुकारते थे, जय जय।

सुरमा नहीं बिचलित होते। ….

सच है ,बिपत्ति जब आती है ,
कायर को ही दहलाती है ,
सूरमा नहीं बिचलित होते
क्षण एक नहीं धीरज होते
बिध्नो को गले लगाते हैं
काँटों में राह बनाते हैं।

मुँह से ना कभी उफ़ कहतें हैं
संट का चरण न गहतें हैं
जो आ पड़ता सब सहते हैं
उदयोग निरत नित रहतें हैं ,
शूलों का मूल नाशाते हैं
बढ़ खुद बिपत्ति पर पर छातें हैं

है कोन बिध्न ऐसा जग में
टिक सके आदमी के मग में
ख़म ठोक ठेलता है जब नर
पर्वत के जातें पावं उखड
मानव जब जोड़ लगाता है
पत्थर पानी हो जाता है

गुण बडे एक से एक प्रखर
है छिपे मानवो के भीतर
मेहदी में जैसी लाली हो
वत्रिका बीच उजयाली हो
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रौशनी नहीं वह पाता है ,

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हिन्दी कविता

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